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पगली

जिंदगी
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आज की सुबह कुछ अजीब सी थी। यूं इस खुशनुमा कालोनी में कोयलों की कूक कई बार मोबाइल रिंग टोन का सा एहसास कराती है किन्तु आज ऐसा नहीं हुआ। आज तो बस अलग-अलग तरह की आवाजों ने झकझोर कर जगाया था। उठ कर छज्जे तक पहुंचा तो देखा मोहल्ले की औरतें पार्क के कोने में इकट्ठा थीं। कहने को यह पॉश कालोनी थी, अगल-बगल के लोग भी एक दूसरे को जान जाएं तो बहुत था, किन्तु यह क्या… आज तो कभी कार से न उतरने वाली, मॉल से सब्जी खरीद कर लाने वाली मिसेज बंसल भी वहाँ दिख गयीं। कुछ रोने जैसी आवाजों के बीच हल्की सी चीख और फिर बेटी… बेटी… जैसी आवाजें फिजां में गूंजने लगी थीं। मैं कुछ समझने की कोशिश करता, तब तक अम्मा दिखायी पड़ गयीं। मैं एक बार फिर अचम्भे में पड़ गया!! अम्मा और सुबह-सुबह इस तरह मोहल्ले की महिलाओं की भीड़ में। खैर मुझे ज्यादा देर दिमाग नहीं खपाना पड़ा। अम्मा आयीं तो शायद पहली दफा, मैंने दौड़कर दरवाजा खोला था। मेरे मुंह से क्या हुआ अम्मा? क्यों भीड़ लगी थी वहाँ? आप वहाँ क्यों गयी थीं? जैसे सवालों की बौछार सी छूट गयी। अम्मा बोलीं, रुको बताती हूं, क्यों परेशान हुए जा रहे हो। फिर उन्होंने जो बताया उसके बाद मेरे स्मृति पटल में मानो रिवर्स गेयर लग गया था। आज को छोड़ मैं पहुंच गया था, दस साल पहले।
सच्ची, दस साल पहले की ही तो बात है, जब हम इस कॉलोनी में नये-नये रहने आये थे। मोहल्ले में परिचय का सिलसिला बस शुरू ही हुआ था। भले ही शुरुआत में मेरा कोई दोस्त नहीं था किन्तु यह स्थिति बहुत दिन नहीं रही। घर के सामने का वह पार्क दोस्त बनाने में खासा मददगार साबित हुआ। रोज शाम अम्मा मुझे पार्क जाने से नहीं रोकतीं और वहां इक्का-दुक्का लड़कों से दोस्ती की जो शुरुआत हुई, वह कुछ महीनों में पूरी क्रिकेट टीम में तब्दील हो गयी। उसी पार्क में वह भी आती थी। हम अपनी क्रिकेट किट के साथ पहुंचते और वह अपने पालतू कुत्ते के साथ। उसके पहुंचने के साथ ही पार्क की हमारी खुशनुमा क्रिकेट टीम का रंग-ढंग भी मानो बदल जाता था। हर किसी की नजर उसकी ओर होती और वह थी कि किसी से बात ही नहीं करती। कुछ देर अपने कुत्ते को टहलाने के बाद वह तो लौट जाती, किन्तु हम सब मानो उसके पीछे ही टहलते रहते। उसके बारे में पता करने की होड़ सी लगी थी। हमें पता भी चल गया था कि वह अपने माता-पिता की एकलौती संतान है। वह लाडली बेटी है और उसकी हर बात माता-पिता जरूर मानते हैं। कुल मिलाकर हमारी बातों में बस वह होती और उसकी चाल-ढाल। मैं भी तो मानो उसका मुरीद ही था। उसकी सिर से लपेट कर चुन्नी ओढ़ने की अदा, हमेशा लंबे सलवार सूट पहनने की आदत जैसी तमाम कितनी ही चीजें मानो मैंने गांठ बांध रखी थी। कोई उसके लिए कुछ उल्टा सीधा कहता तो मैं लड़ बैठता। पता नहीं क्यों, बर्दाश्त नहीं होता था, उसके लिए कोई कमेंट। अब तो मेरी टीम के साथी उस पर कोई चर्चा करने के साथ मेरी ओर इशारा कर कहते, भइया इनके सामने ज्यादा कुछ मत कहना, मुंह फुला लेंगे। कोई उसे मेरी वाली कहता तो कोई कुछ और, पर इतना तय था कि हमारी शामें उसके कसीदे काढ़ते कटती थीं। इन्हीं कसीदों के साथ एक दिन घर लौटा तो अम्मा एक शादी का कार्ड पढ़ रही थीं। मैंने पूछा, किसकी शादी का कार्ड है और उसके बाद तो मानो मेरे कानों में लावा सा घुल गया था। उसी की शादी थी…. जी हां, वही पार्क वाली, मेरी वाली… शादी करने जा रही थी। कई दिन लगे मुझे संभलने में। फिर अम्मा को साथ लेकर उसकी शादी में भी गया। सच… क्या लग रही थी। बहुतों की खुशी के बीच मैं खासा दुखी सा थी। ऊपर से मेरी टीम के लोग। कोई मुझे चिढ़ाने का मौका नहीं छोड़ रहा था। गयी तेरी वाली… जैसे कटाक्ष मुझे सुनने पड़ रहे थे। अगले दिन वह विदा हो गयी और तमाम स्मृतियों के साथ जिंदगी भी चलने ही लगी थी।
….धीरे धीरे पांच साल बीत गये। खुशनुमा कालोनी का खुशनुमा स्वरूप बदस्तूर कायम रहा। तमाम नये लोग आ गये। पार्क अब भी था, पर मेरा वहां जाना थम चुका था। उसके जाने के बाद पार्क की शाम सूनी सी जो हो गयी थी। अचानक एक शाम छज्जे पर खड़ा था, तभी आंखों के आगे कुछ अलग सा उजाला चमका। वह एक बैग के साथ घर से कुछ दूर पर रिक्शे से उतर रही थी। यूं, वह इन पांच वर्षों में बीच-बीच में आती-जाती रही किन्तु उसका पति हमेशा उसके साथ होता था। इसके विपरीत इस बार वह अकेली आयी थी। उसका चेहरा उतरा हुआ था और उदासी साफ नजर आ रही थी। वह सिर झुकाए हुए ही आगे बढ़ी और घर में घुस गयी। इसके बाद रोज शाम मैं तो छज्जे पर होता किन्तु वह दिखाई नहीं देती। इन पांच वर्षों में उसका मायका भी बदल चुका था। पिता की मौत हो चुकी थी और मां अकेले जीवनयापन को मजबूर थी। वह मां-बेटी घर से बाहर कम ही निकलते और मेरे सवाल थे कि बढ़ते ही जा रहे थे। वह इस तरह अकेले क्यों आयी और फिर रुक क्यों गयी जैसे सवालों के बीच एक बार फिर वह मेरे इर्द-गिर्द सी रहने लगी थी। अचानक वह शाम भी आ गयी, जब मुझे सभी सवालों के जवाब मिलने थे। अम्मा ही इस बार भी मेरी जानकारी का माध्यम बनीं। उन्होंने बताया कि ससुराल पहुंचने पर तो उसे सबने सिर माथे पर बिठाया। बड़ी-बड़ी बातें हुईं। खूब आशीष दिये गये। पर, यह सब कुछ बहुत दिन नहीं चला। पांच-छह महीने होते ही सास को अपने वंश की चिंता सताने लगी। हर कोई उसे मां बनते देखना चाहता था। विवाह के दो वर्ष बीतते-बीतते तो उसके गर्भवती न होने के लिए उसे ही जिम्मेदार मान लिया गया। अब तो कभी कभी पति उसकी पिटाई भी करने लगा था। यह सिलसिला बढ़ने लगा। बीच-बीच में सास भी हमलावर होने लगी। वह भी स्वयं मां न बन पाने के लिए खुद को ही जिम्मेदार मान कर सब सह रही थी। ….लेकिन उस दिन तो हद ही हो गयी। शाम को अचानक उसका पति घर आया और उसका सामान निकालकर एक बैग में पैक कर दिया। उसके पति व सास ने उसे पीटा और धक्के देकर घर से बाहर निकाल दिया। वह तड़प रही थी, तभी उसका पति बाहर निकला, एक रिक्शा लेकर आया और उसे उस पर बिठा दिया। वह भी सुबकते हुए अपने मायके चली आयी।
…लेकिन उसकी जिंदगी में तो मानो अभी दर्द ही दर्द बाकी था। अचानक एक दिन खबर आयी कि उसका पति दूसरी शादी कर रहा है। वह भाग कर पहुंची लेकिन उसकी नहीं सुनी गयी। वह पुलिस के पास गयी किन्तु वहां से भी निराश लौटना पड़ा। इस घटना के बाद वह टूट गयी। वह लौटी और बस रोती रही। उसे अब दुनिया में कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। नियति शायद उसके साथ लगातार खिलवाड़ सा करना चाहती थी। आंसुओं के सैलाब के बीच एक सुनामी सा आया और उसकी मां को अपने साथ ले गया। मां की मौत के बाद तो उसने सुध-बुध सी खो दी थी। वह घर से निकलती तो कई बार कई-कई दिन तक नहीं आती। इस हालात में कुछ महीने बीतते-बीतते लोग उसे पगली कहने लगे थे। कभी पार्क की बेंच पर तो कभी मंदिर के चबूतरे पर उसकी रात बीत जाती। वह अपने आपको भूल सी चुकी थी। कोई उसे खाने को दे देता, तो वह खा लेती वरना भूखी ही बनी रहती। उसकी खुराक के साथ भी मानो सौदे से होने लगे थे और आज यह साबित भी हो चुका था। और आज जिन चीखों के बीच मैं छज्जे पर पहुंचा था, वह उसके प्रसव की चीखें थीं। उसके पागलपन का फायदा उठाकर किसी ने उसकी इज्जत के साथ खिलवाड़ किया था और इस बार वह गर्भवती हो गयी थी। गर्भवती न होने के जिस दंश के कारण उसकी यह दशा हुई थी और उसे खुद ही मातृत्व का एहसास नहीं था। वह तो बस चीख रही थी। मेरे दिमाग में भी पता नहीं क्या क्या चल रहा था। मैं उसके पति को कोस रहा था। उसके इस हाल का जिम्मेदार तो पति ही था। वह खुद ही पिता बनने के काबिल नहीं था और दोष उस पर मढ़ दिया गया। समाज की यह विसंगति आज मुझे परेशान कर रही थी।
तमाम बातें हो रही थीं। कोई उस पर तरस खा रहा था तो कोई चटखारों के साथ उसकी कहानियां बना रहा था। इन सबके बीच मुझे गुस्सा आ रहा था, उस पति पर जिसने अपनी कमियों की सजा उसे दी थी। मेरा वश चलता तो शायद आज मैं उसके प्रति अपने प्रेम का सर्वस्व समर्पण कर देता। इस विचार मंथन के बीच उसकी नवजात बेटी का क्रंदन भी कानों तक पहुंच रहा था। मैंने एक बड़ा फैसला लिया। तय किया कि वह बेटी अब मेरे घर पढ़ेगी। मैंने मां को साथ लिया, सीढ़ियों से उतरा, और पुराने कपड़ों में लिपटी उस बच्ची को संभाल लिया। मुझे नहीं पता कि ऐसा क्यों था किन्तु आज मुझे अलग सा एहसास हो रहा था। कई वर्षों में जिससे बात करने का साहस न जुटा सका, उसे अस्पताल ले जा रहा था और बेटी मेरी गोद में आकर चुप भी हो गयी थी।

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