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मौत के मायने

जिंदगी
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कैसी होती है मौत। तमाम बार यह सवाल हम सबके मन में जरूर आता है। बदलते सामाजिक परिवेश में मौत के मायने भी लगातार बदल रहे हैं। जिस तरह छात्र-छात्राएं आत्महत्याएं कर लेते हैं, उससे यह सवाल और जटिल हो जाता है। कुछ भी हो, मौत इतनी आसान तो नहीं होती होगी, फिर भी क्यों मौत को चुन लेते हैं छात्र-छात्राएं। तीन दिन पूर्व आईआईटी कानपुर की छात्रा माधुरी की मौत के बाद एक बार फिर यही सवाल उठे हैं। आईआईटी में प्रवेश का मतलब ही होता है, एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी यानी विलक्षण। अब अपने सामान्य प्रतिस्पर्द्धी वातावरण में सबसे खास होने के बाद आईआईटी पहुँच कर ऐसा क्या हो जाता है, जो छात्र-छात्राएं जिंदगी से हार मान लेते हैं। बीते दो वर्षों में पांच मौतों के बाद आईआईटी के लिए भी यह चुनौती बन गया है। छात्र- छात्राओं की आत्महत्या को लेकर परेशान आइआइटी परिसर में एक सवाल गूंजने लगा है कि आखिर ऐसा क्या है कि तमाम इंतजामों के बावजूद घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं। हालांकि किसी के पास इसका सही जवाब नहीं, लेकिन छात्रों, शिक्षकों और पूर्व छात्रों से वार्ता के बाद यह तथ्य सामने आया है कि गुरु-शिष्य परंपरा का ह्रास भी इन स्थितियों की बड़ी वजह है। हालात ये हैं कि तमाम शिक्षक, छात्रों का दुख-दर्द संवेदना के साथ नहीं सुनते। उनके और छात्रों के बीच दूरियां बढ़ी हैं और छात्रों में स्वअनुशासन घटा है। शिक्षकों का कहना है कि वे छात्रों की घटती सहनशक्ति, उनके देर रात तक इंटरनेट तथा डीवीडी देखने से नाराज रहते हैं। कोचिंग के बल पर चयनित हुए छात्र 11वीं कक्षा से ही घरों से दूर हो जाते हैं जिससे उनका चिंतन एकांगी हो जाता है। पहले कक्षा में 50 से 60 छात्र होते थे अब सौ से भी ज्यादा हैं। जहां छात्र नेट पर जानकारियों खंगाल लेने से शिक्षकों तक कम पहुंचते हैं वहीं बढ़ी छात्र संख्या के चलते शिक्षक उनके बहुत करीब नहीं पहुंच पाते। वहीं छात्रों का कहना है कि तमाम शिक्षकों को उत्पीड़न करने में आनंद आता है। शिकायत ले जाने पर उल्टे उन्हें ही डांटा जाता है। फैसलों में पक्षपात करते हैं। अपने शोध के काम लेते हैं। मामलों पर काउंसलिंग सेल प्राय: अपेक्षित गंभीरता नहीं बरतता। छात्रावासों के भोजन का स्तर बहुत अच्छा नहीं है। स्वच्छता भी उच्च स्तरीय नहीं है। उन्हें बीमारियां पकड़ लेती हैं। ग्रेडिंग प्रणाली में फेल होने की धमकी ज्यादा, प्रोत्साहन कम है।
मौका आरोप-प्रत्यारोप का तो कतई नहीं है। छात्रों व शिक्षकों, दोनों को सोचना होगा कि ये स्थितियां क्यों पैदा हुई हैं। आईआईटी या अन्य प्रीमियर शिक्षा संस्थानों के आंतरिक हालातों पर गौर करें तो पता चलता है कि तमाम छात्र-छात्राएं तो हफ्ते-हफ्ते नहीं नहाते। इंटरनेट की व्यस्तता व पढ़ाई के भूत से परेशान बड़ी संख्या में छात्र रात तीन बजे तक नहीं सोते और सुबह कक्षा में पहुंचने के लिए स्नान के साथ नाश्ता तक छोड़ देते हैं। ऐसे छात्रों की बड़ी संख्या है जो सात से दस दिन तक नहीं सोते। पहले शिक्षकों के पास छात्र-छात्राओं के लिए समय होता था किन्तु अब उनकी अपनी व्यस्तताएं हैं। निदेशक सहित अधिकांश विभागाध्यक्ष व प्रमुख शिक्षक प्राय: संस्थान से बाहर रहते हैं, उनके पास छात्रों व शिक्षकों की समस्याएं सुलझाने का समय ही नहीं है। उन्हें तमाम राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार तो मिलते हैं, किन्तु छात्र-छात्राओं के लिए समय नहीं मिलता। यह स्थिति निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण है, किन्तु दुख, एक बार फिर माधुरी की मौत की जांच होगी, जांच समिति अपनी रिपोर्ट देगी किन्तु कार्रवाई हर बार की तरह इस बार भी नहीं होगी।

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